परीक्षण कीजिये कि औपनिवेशिक भारत में पारम्परिक कारीगरी उद्योग के पतन ने किस प्रकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था को अपंग बना दिया? (IAS 2017)
भारत की आर्थिक समृद्धि के आधार कृषि, शिल्प उद्योग और पशु पालन रहे है। हड़प्पा से लेकर उत्तरवर्ती मुग़ल शासन-काल तक यही भारत का सच है। इसी के चलते भारत को सोने की चिड़िया कहा गया। इसी से आकर्षित होकर अंग्रेज़ भारत आए किन्तु कालांतर में वे ही भारत के आर्थिक विनाश का कारण बने।
इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति ने भारत को एक बड़े बाजार में परिवर्तित कर दिया । भारत के गाँव स्वावलम्बी थे। कृषि, पशुधन और कारीगर उद्योग ग्रामीण भारत की आर्थिक समृद्धि की रीढ़ थे । भारत के सामाजिक ताने-बाने के प्रमुख आधार भी । भारतीय ग्रामीण भोजन और वस्त्र के लिए स्वनिर्भर था। अमूमन सभी प्रकार के खाद्यान, तिलहन, फल, विभिन्न प्रकार के चीनी और गुड़, सर की पगड़ी से लेकर पाँव के जूते तक, सभी प्रकार के पशु और पशु उत्पाद के लिए भारतीय स्वावलम्बी थे।
भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में साप्ताहिक बाज़ारें लगती थी। गाँव में छोटी बाज़ारें जिन्हे हाट कहते थे। जिन चीज़ों का उत्पादन कोई गाँव नहीं करता था उसकी खरीददारी वह साप्ताहिक हाटों से कर लेता था। भारत के गाँव अपनी ज़रूरत की सभी चीज़े स्वयं निर्मित करते थे । नगद पैसा उनके जीवन के सुख और समृद्धि के लिए आवश्यक नहीं था। हालांकि वह भारी मात्रा में अधिशेष उत्पादन करते थे, जिसे वे या तो स्वयं कस्बों और नगरों के बाज़ारों में बेचते थे, या बड़े नगरों के व्यापारी गाँव जाकर उनके दरवाज़े से सामान खरीदते थे। यह कमाई ग्रामीणों की खुशहाली का रहस्य थी।
अंग्रेजी औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय कुटीर और शिल्प उद्योगों ( कारीगरों) के बाज़ार को छीनकर अपने मशीनी उत्पादों से भारतीय बाज़ारों को पाट दिया। ग्रामीण भारत रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए नगदी पर निर्भर हो गया । इसके लिए उसे कृषि उत्पादों को समय से पहले ही कम कीमतों पर बेचना पड़ा। खेतों को बेचना पड़ा। सूद-खोरों, महाजनों की शरण में जाना पड़ा। हँसता - खिलखिलाता ग्रामीण जीवन निरंतर भुखमरी, गरीबी और हताशा की त्रासद गाथा बन कर रह गया।
और क्रमशः, ऋण- जाल में फंस कर शाश्वत शोषण का शिकार बन गया।